डर के आगे कोई कुछ नही कर सकता
७ फरवरी १९८५ को हमने पूजा का पहला जन्मदिन मनाया। दो सप्ताह के भीतर कलकत्ता में मुझे अपने जहाज़ “विश्व आशा” ज्वाइन करना पड़ा । इस बार मेरी पत्नी मंजू और बेटी पूजा भी मेरे साथ थे। लगभग १० दिनों के बाद हमारा जहाज़ कोचीन पहुंचा। वहां रहने के दौरान, हमें डॉक्टर से मिलना पड़ा क्योंकि मंजू को ठीक नहीं लग रहा था, चेक अप के बाद डॉक्टर ने बताया कि मंजू गर्भवती थी और हमें सेलिंग के दौरान बहुत सावधानी बरतनी होगी। इस खबर से हम दोनों ही खुश थे और थोड़े से चिंतित भी । सबसे पहले तो पूजा केवल १५ महीने की थी और फिर जहाज़ लगभग ४ महीने की लंबी यात्रा पर रसिया जा रहा था। खैर, हमने इसे हमारी नियति मानकर, ईश्वर के आशीर्वाद के रूप में स्वीकार कर लिया।
लगभग २१ दिनों की सेलिंग के बाद, अप्रैल के अंत में हम ओडेसा पहुंचे। मौसम और दरिया दोनों ही ने हमारा साथ दिया, दिनचर्या बहुत अच्छी रही, जहाज़ पर हमारे बंगाली स्टुअर्ड ने मंजू और पूजा के खानपान की अच्छी देखभाल की। रसिया में हमारा जहाज़ लगभग ३ महीने रहा, इस बीच हमने कई नयी जगह, रसियन सर्कस और विशेष रूप से ओडेसा के ओपेरा हाउस में बैले नृत्य देखा। इस अवधि का हम तीनों ने खूब आनंद लिया। कोचीन से कारगो में तम्बाकू लोड कर जहाज़ ओडेसा आया था, ओडेसा में तम्बाकू अनलोड कर जहाज़ नोवोरोसिस्क चला गया। ये भी काला सागर में ही रसिया का दूसरा बंदरगाह है, यहाँ से कलकत्ता के लिये भारी मशीनरी का सामान लोड किया।
दिनांक २७ जुलाई १९८५, नोवोरोसिस्क (रसिया) - कारगो लोडिंग का सारा काम ख़त्म कर कलकत्ता की वापसी यात्रा के लिए जहाज़ शाम को निकल गया, हमेशा की तरह मैं अपनी ४ से ८ की वाच ख़त्म कर सवा आठ बजे अपने केबिन में आया। मंजू सोफे पर बैठी एक स्वेटर बुन रही थी और पूजा टेबल टेनिस की बाल से खेल रही थी, मैंने फ्रिज से एक ठंडी कोक निकाली और पास ही एक कुर्सी पर बैठ गया। इतने में ही चीफ इंजिनियर का फोन आया, आज काला सागर का मिज़ाज खराब है, इंजन रूम में लाशिंग वगैरह देख लेना।
मैंने अपना फोन नीचे रखा ही था, इतने में जहाज़ का एक ज़ोरदार रोल आया, मेरा केबिन जहाज़ की पोर्ट साइड के बाहरी कोने पर था । वहां पर रोलिंग का असर ज्यादा ही महसूस होता था, अचानक पूरा जहाज़ पोर्ट से स्टाबोर्ड की तरफ गया और फिर सीधा हो गया। टेबल पर रखी कोक की कैन धड़ाम से नीचे गिरी और सारी कोक फ्लोर पर फ़ैल गई, मंजू ने सबसे पहले पूजा को उठाकर अपने साथ सोफे पर बिठाया और पकड़ लिया। मैंने सोचा, अभी अभी तो नोवोरोसिस्क से निकले हैं, इतनी जल्दी तो काला सागर का रौद्र रूप नहीं मिलना चाहिये, शायद एक दो रोल आकर शांत हो जाएगा ।
मगर ऐसा नहीं था, उस दिन काला सागर का मिज़ाज ज्यादा ही खराब था। स्टाबोर्ड की तरफ पहले रोल के बाद जहाज़ पोर्ट की तरफ गया और ये बार बार होने लगा । ५ मिनिट में ही ये रोल ३० से ३५ डिग्री तक जा रहे थे, अचानक से हालत बहुत बिगड़ गई थी। रोलिंग के साथ पिचिंग भी शुरू हो गई थी, मुझे जल्दी से जल्दी इंजन रूम में पहुंचाना था और यहाँ इस हालत में मंजू और पूजा को डे रूम में नहीं छोड़ सकता था। उन दोनों का अपने आपसे बेड रूम में घुसना बहुत मुश्किल लग रहा था। जहाज़ पर ऐसी स्थिति के लिये हमेशा पूरी तैयारी रहती है, फिर भी कभी २ चूक हो जाती है और ये बहुत भारी पड़ती है। मेरे डे रूम में भी ऐसा ही कुछ हुआ, हर रोल के साथ रेक में रखा सामान फ्लोर पर गिर रहा था। आम तौर पर रेक में रेकगार्ड लगाकर रखते हैं, लेकिन उस दिन कुछ रेकगार्ड नहीं लगे थे, रेक में रखी फाइलें गिर गई। एक अचार की शीशी रखी थी, नीचे गिरी और सारा अचार फ़ैल गया। जहाज़ के रोल धीरे धीरे बढ़ते जा रहे थे और अधिक कष्टप्रद हो रहे थे ।
फ्लोर पर तेल और कोक फैलने की वजह से पूरी फ्लोर चिकनी हो गयी थी, इतने में ही रोल के साथ साथ, कुर्सी पर बैठा मैं, खिसककर पहले स्टाबोर्ड की तरफ जाकर टकराया और फिर पोर्ट से टकराया। चलना तो दूर, बिना सहारे कुर्सी से खड़ा होना मुश्किल हो गया था। इस स्थिति से हम दोनों ही घबरा गए थे, हमारी चिंता का मुख्य कारण मंजू का गर्भ से होना था। किसी तरह मैंने टेबल का सहारा लिया और बड़ी मुश्किल से खड़ा हुआ, सबसे पहले मैंने पूजा को टेबल पर खड़ा कर एक हाथ से जकड़ा, और फिर दूसरे हाथ से मंजू को बेड रूम की तरफ धकेला। उसके पीछे २ पूजा को गोद में लेकर मैं भी बेड रूम में घुस गया, दोनों को अन्दर सुरक्षित छोड़, मैं फिर बाहर आया। डे रूम की हालत बद से बदतर होती जा रही थी, लगातार तेज़ रोलिंग से फ्रिज का होल्डिंग गार्ड ढीला हो गया और फ्रिज स्टाबोर्ड से खिसककर पोर्ट से टकराया और फिर पोर्ट से स्टाबोर्ड, डे रूम में तबाही मची हुई थी।
बचते बचाते बड़ी मुश्किल से डे रूम से बाहर निकला और इंजन रूम पहुंचा, पहुँचकर वहां के हालात का जायजा लिया। मेन इंजन के सम्प में लुब्रिकेटिंग आइल का लेवल बढ़ाया, सारे सामान की लाशिंग वगैरह देखी ईश्वर की कृपा से इंजन सही सलामत चल रहा था, जरूरी निर्देश देकर आधा घंटे बाद मैं अपने केबिन में लौटा । काला सागर ने करीब १२ घंटे तक सबकी नींद उडाये रखी, रात बड़ी मुश्किल से गुज़री । सुबह तक सागर कुछ शांत हो गया था, जो इस्तानबुल पहुँचते २ पूरा शांत हो गया ।
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